क्या यही प्यार है ?
-ध्रुव गुप्त
प्यार के इस मौसम में भी प्यार को धोखा, फ़रेब, स्वार्थ, छल, नाटक, तमाशा, बर्बादी कहने का सिलसिला चल रहा है। जिसे देखो अपने महबूब पर बेवफाई, निष्ठुरता, फ़रेब, संगदिली और मतलबपरस्ती का इल्ज़ाम लगाता फिर रहा है। ऐसे बदनसीब लोगों को क्या प्यार का मतलब पता भी है ? किसी ने आपको दो पल, दो दिन, दो महीने, दो साल ही सही, प्यार के तिलिस्मी अहसास और गहरे अनुभव दिए – क्या वह प्यार नहीं था ? क्या ज़रूरी है कि वह हमेशा आपकी आकांक्षाओं के अनुरूप चले, आपकी पत्नी भी बने, आपके बच्चों की मां भी और जीवन भर आपके अहम को सहलाने वाली परिचारिका भी ? यह प्रेम नहीं, पुरूष अहंकार का विस्तार और भावनाओं का साम्राज्यवाद है। प्रेम की सफलता एकाधिकार और दांपत्य में नहीं, उन नाज़ुक़ और बेशकीमती संवेदनाओं में है जिसे आपके व्यक्तितव में भर कर आपके महबूब ने आपको अनमोल कर दिया। उसने जितना दिया या दे सका, उसे बहुत कृतज्ञता के साथ स्वीकारें और बड़े एहतराम के साथ अपने प्रिय को विदा करें ! प्रेम बेड़ियां नहीं, मुक्ति देता है। मुमकिन है उसकी कोई मजबूरी रही हो। हो सकता है कि अपने भावी जीवन के लिए उसे एक बेहतर साथी मिल गया हो। आप ईश्वर की कोई सर्वश्रेष्ठ रचना तो हैं नहीं ! जीवन प्रेम की अनवरत तलाश है और इसी में जीवन का रोमांच है।
तो विगत प्रेम की बेहतरीन यादें समेटिए और जो आपको प्यार के कुछ दुर्लभ पल दे गया उसे कुछ अच्छी दुआओं से नवाज़ते हुए निकल पड़िए अपने सफ़र पर !
(फेसबुक वॉल से साभार)