मोदी की इजराइल यात्रा के निहितार्थ !
-ध्रुव गुप्त
फिलिस्तीन और इजरायल के बीच तनाव और संघर्ष के कई दौर मानव इतिहास की सबसे बड़ी त्रासदियों में एक है। उनकी लड़ाई में हज़ारों लोग मारे जा चुके हैं जिनमें ज्यादातर बेगुनाह नागरिक और मासूम बच्चे शामिल हैं। मसला दोनों के अस्तित्व से ज्यादा ऐतिहासिक वजहों से उनके बीच सदियों से पल रही बेपनाह नफरत का है। इसमें कोई संदेह नहीं कि 1948 में अरबों की छाती पर इजराइल की स्थापना पश्चिमी देशों की भयंकर भूल थी, लेकिन इतिहास को फिर से लिखा जाना अब मुमक़िन नहीं। इजराइल अब एक हक़ीक़त है। अरबों और दुनिया भर के मुसलमानों की बेहिसाब नफ़रत उसे दिन-ब-दिन आक्रामक बना रही है। अगर अरब मुल्कों की सोच यह है कि वे दुनिया के नक़्शे से इजराइल का अस्तित्व मिटा देंगे तो यह उनकी ख़ुशफ़हमी ही है। दूसरी तरफ एशिया के सबसे शक्तिशाली देशों में एक इजराइल अगर यह सोचता है कि वह गाज़ा से फिलीस्तीनियों का सफ़ाया कर देगा तो यह उसकी भूल है। अपनी ही ज़मीन पर विस्थापित का जीवन जी रहे स्वाभिमानी फिलीस्तीनियों की आज़ादी के जज़्बे को कुचलना किसी के बस की बात नहीं है। मध्य एशिया में आप जितनी लाशें बिछा दे, गाज़ा का समाधान अन्ततः ठंढे दिमाग और बातचीत से ही निकलेगा। दुर्भाग्य से दोनों को वार्ता-टेबुल तक लाने वाला कोई नहीं है। संयुक्त राष्ट्र का वह पुराना प्रस्ताव समस्या के समाधान का प्रस्थान बिंदु हो सकता है जिसमें कहा गया है कि इजराइल गाज़ा की अपने कब्ज़े वाली सभी ज़मीन खाली करे और तमाम अरब मुल्क़ इजराइल को मान्यता दे दें, लेकिन ऐसा करके न अमेरिका अपने हथियारों का एक बड़ा बाज़ार खोना चाहेगा और न अरब मुल्क़ इतिहास से बाहर निकल कर खुली हवा में सांस लेने को तैयार होंगे।
इस विवाद में पारंपरिक रूप से भारत की सहानुभूति फिलिस्तीन के साथ रही है। इजराइल के हथियारों का बड़ा आयातक होने के बावजूद भारत उसके साथ खुले रिश्ते से बचता रहा है। प्रधान मंत्री मोदी की इजराइल यात्रा किसी भारतीय प्रधानमंत्री की पहली यात्रा है। इस यात्रा से एशिया में अलग-थलग पड़े इजराइल को कूटनीतिक बल मिलेगा, लेकिन भारत को अपने मित्र के तौर पर देखने वाले फिलिस्तीनियों के लिए यह किसी सदमे से कम नहीं होगा। रिश्तों की इस जटिलता का व्यावहारिक पक्ष देखा जाय तो जिस तरह चीन और पाकिस्तान मिलकर भारत को घेरने का प्रयास कर रहे हैं और पाकिस्तान के अलावा कई दूसरे अरब मुल्क गुपचुप तरीके से कश्मीर के आतंकियों और अलगाववादियों को नैतिक और आर्थिक मदद देने में लगे हैं, उसमे एशिया में शक्ति संतुलन के लिए भारत के पास जापान के अलावा इजराइल के निकट जाने के सिवा और कोई रास्ता नहीं बचा है। आज के समय में किसी भी देश की विदेश नीति भावनाओं या आदर्श पर नहीं, व्यावहारिकता और राष्ट्र हित पर ही आधारित हो सकती है।(फेसबुक वॉल से साभार)